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आत्मिक जागरण के लिये प्रार्थना करना

PRAYING FOR REVIVAL
(Hindi)

डॉ आर एल हिमर्स
by Dr. R. L. Hymers, Jr.

रविवार की संध्या, १९ अगस्त, २०१६ को लॉस ऐंजीलिस
के दि बैपटिस्ट टैबरनेकल
में दिया गया संदेश
A sermon preached at the Baptist Tabernacle of Los Angeles
Friday Evening, August 19, 2016


प्रेरितों के कार्य १: १८ निकाल लीजिये। यह स्कोफील्ड बाईबल में पेज ११४८ पर अंकित है। जब मैं इसे पढ़ता हूं तो कृपया खड़े हो जाइये। ये वे शब्द हैं जो यीशु मसीह ने प्रथम मसीहियों को दिये थे,

''परन्तु जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा, तब तुम सामर्थ पाओगे और यरूशलेम और सारे यहूदिया, और सामरिया मेंऔर पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे।'' (लूका १४: २३)

अब आप बैठ सकते हैं।

कुछ प्रचारकों का मानना है कि यह सिर्फ पेंतुकुस्त के समय पवित्र आत्मा के उड़ेले जाने के विषय में बताता है। वे यह भी कहते हैं कि उन दिनों के समान आज हम पवित्र आत्मा के इस तरह आगमन के विषय में सोच नहीं सकते। उनमें से कई तो यह सोचकर डरते हैं कि अगर लोगों को पवित्र आत्मा के विषय में बताया गया तो वे पेंटीकोस्टल हो जायेंगे। इसलिये वे मनुष्य के भीतर पाप बोध के कार्य और मन परिवर्तन के कार्य को होने देने को निरूत्साहित करते हैं क्योंकि वे पेंटीकोस्टिलज्म से डरते हैं। पर ऐसे प्रचारक गलत हैं जो यह कहते हैं कि पवित्र आत्मा आज के समय में उतर कर नहीं आ सकता। इस पद के अंतिम आठ शब्द यह बताते हैं कि वे गलत सोचते हैं क्योंकि लिखा हैं, ''और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे।'' एक आधुनिक अनुवाद बताता है, ''कि पृथ्वी के दूरदराज तक मेरे गवाह होंगे।'' चूंकि प्रारंभिक मसीही ''सुदूर फैले'' और ''अंत तक'' फैले भागों में नहीं जा सकते थे। यीशु ने ये शब्द हर काल के लोगों के लिये कहे हैं। यीशु ने उनसे और हमसे ये कहा है, ''परन्तु जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा, तब तुम सामर्थ पाओगे'' यह थोड़े समय बाद प्रेरितों की पुस्तक में अध्याय २:३९ में पतरस के कथन द्वारा सिद्व होता है। इस पद को निकाल लीजिये।

''क्योंकि यह प्रतिज्ञा, तुम और तुम्हारी सन्तानों और उन सब दूर दूर के लोगों के लिये भी है जिन को प्रभु हमारा परमेश्वर अपने पास बुलाएगा।'' (प्रेरितों के कार्य २:३९)

इसलिये चेले पुन यरूशलेम गये और उपरी कमरे में एकत्रित होकर प्रार्थना करते रहे। वे किस बात के लिये प्रार्थना करते रहे? वे पवित्र आत्मा द्वारा सामर्थ मिलने के विषय में प्रार्थना करते रहे जिसकी प्रतिज्ञा मसीह ने की थी ''जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा, तब तुम सामर्थ पाओगे।'' (प्रेरितों के कार्य १:८) मैं आयन एच मरे से पूर्णत सहमत हूं जब उन्होंने इस प्रकार कहा,

''जब पेंतुकुस्त ने एक नये युग का आरंभ किया तो मसीह द्वारा पवित्र आत्मा के दान दिये जाने के कार्य का अंत नहीं हुआ। पेंतुकुस्त के दिन पवित्र आत्मा का पूर्ण रूप से संवाद आरंभ हुआ यह संपूर्ण (मसीही युग) को चिंन्हित करने वाला दिन था। यह केवल एक समय घटने वाली घटना नहीं थी। पर यह कभी भी घट सकती थी। यह केवल एक समय घटने वाली घटना नहीं थी। पर यह कभी भी घट सकती थी। इसका उददेश्य ही यही था कि अगर मनुष्य इसकी मांग करे तो उसे और अधिक आत्मा प्रदान किया जायेगा। क्या चेलों को यह नहीं बताया गया था? जब चेलों ने यीशु से कहा कि 'हमें प्रार्थना करना सिखा' तब यीशु ने उनसे कहा था: ''सो जब तुम बुरे होकर अपने लड़के-बालों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो स्वर्गीय पिता अपने मांगने वालों को पवित्र आत्मा क्यों न देगा'' (लूका ११:१३) मसीहियों के लिये यह बेहद तर्कसंगत बात है कि उन्हें अधिक पवित्र आत्मा पाने के लिये प्रार्थना करते रहना चाहिये। (आयन एच मरे, पेंटीकोस्ट टू डे दि बिब्लीकल अंडरस्टैंडिंग आफ रिवाईवल दि बैनर आफ ट्रूथ ट्रस्ट, १९९८, २१)

ऐलेकजेंडर मूडी स्टूअर्ट ने कहा था, ''जब पवित्र आत्मा चर्च में उपस्थित रहता है तब वह हमें और अधिक परमेश्वर के समीप ले चलता है और सामर्थ से भर देता है।'' (मरे, संदर्भित पेज २२)

लेकिन हमने १८५९ के आत्मिक जागरण के बाद ऐसा कम ही देखा है। न के बराबर ही देखा हैं। मैं ऐसा मानता हूं कि बहुत से इवेंजलीकल ऐसा नहीं मानते कि मन परिवर्तन होना भी एक आश्चर्यकर्म है। वे ऐसा मानते हैं कि ये आश्चर्य कर्म न होकर मात्र मनुष्य द्वारा लिये गये निर्णय हैं। वे केवल ऐसा मानते हैं कि आपको भटके हुए इंसान से केवल ''मन फिराने वाली प्रार्थना'' दोहरवाना है। बस उन शब्दों को दोहरा दीजिये और आप का उद्वार हो जायेगा! जोयल आस्टिन अपने हर संदेश के अंत में ऐसा कहते हैं। उनके पास ऐसे लोग हैं जो यह प्रार्थना अपने पीछे बुलवाते हैं। फिर वे कहते हैं कि, ''हम मानते हैं कि आप ने ये शब्द दोहरा लिये हैं अत: अब आप का नया जन्म होता है।'' आपने देखा कि उन्होंने पवित्र आत्मा आश्चर्यकर्म करेगा ऐसी किसी बात की आवश्यकता ही नहीं समझी! अगर आप ने ये शब्द दोहरा लिये हैं ''तो आप का नया जन्म हो गया है'' ऐसी गलत धारणा व्याप्त है।

ऐसा समझा जा सकता है कि प्राचीन शिक्षा पुन: व्याप्त हो गयी है जिसमें मूल पाप को माना ही नहीं जाता है & यह सिद्वांत यह सिखाता है कि व्यक्ति अपना उद्वार स्वयं के प्रयास से कर सकता है। इस तरह के प्रचारकों को देखें तो केवल कुछ शब्दों को दोहरा कर ही नया जन्म प्राप्त कर सकते हैं! या किसी चर्च आराधना में आगे आने के द्वारा & या हाथ खड़ा करने के द्वारा! जो भी बचना चाहते हैं अपना हाथ खड़ा करें, यह तो शुद्व रूप से गलत शिक्षा है! यह प्राचीन भ्रांत शिक्षा है जो कहती है कि एक भटका हुआ जन अपने प्रयास से जैसे हाथ खड़ा करने या सामने आने से उद्वार पा सकता है। में तो इसे ''जादुई'' कहूंगा इसमें किसी तरह का मसीही विश्वास नहीं हैं। जादू में आप कुछ शब्द कहते हैं कुछ क्रिया कलाप करते हैं और उन शब्दों या गतिविधि का असर जादू के रूप में सामने आता है। इन ''जादूई'' गतिविधियों को ही आजकल के प्रचार में मन परिवर्तन मान लिया गया है! इन सारी बातों के बारे में विस्तार से जानने के लिये आप डेविड बर्नेट की पुस्तक दि सिनर प्रेयर: इटस ओरीजिंस ऐंड डेंजर्स को पढ़िये। यह अमेजन पर भी उपलब्ध है

वास्तव में होने वाला मन परिवर्तन एक आश्चर्यकर्म है। मेरे साथ मरकुस १०:२६ निकाल लीजिये। यह स्कोफील्ड स्टडी बाइबल में पेज १०५९ पर है।

''वे बहुत ही चकित होकर आपस में कहने लगे तो फिर किस का उद्धार हो सकता है? यीशु ने उन की ओर देखकर कहा, मनुष्यों से तो यह नहीं हो सकता, परन्तु परमेश्वर से हो सकता है; क्योंकि परमेश्वर से सब कुछ हो सकता है......'' (मरकुस १०:२६, २७)

उन्होंने पूछा, ''तो फिर किस का उद्धार हो सकता है?'' यीशु का उत्तर था, ''मनुष्यों से तो यह असंभव है'' मनुष्य स्वयं पापमय दशा में है वह स्वयं को पाप से बचाने के लिये कुछ नहीं कर सकता! आगे यीशु कहते हैं, ''मनुष्यों से तो यह नहीं हो सकता, परन्तु परमेश्वर से हो सकता है।'' किसी एक भी जन का उद्वार परमेश्वर की ओर से आश्चर्यकर्म है! हमने इस साल कुछ परिवर्तनों को देखा है। उनमें से एक तो पिछली रात ही हुआ। हर सच्चा परिवर्तन एक आश्चर्यकर्म है। (फायर फ्राम हैवन, ई पी बुक्स २००९, पेज ११७)

जब एक व्यक्ति का मन परिवर्तित होता है तो यह परमेश्वर का आश्चर्यकर्म होता है। जब कम समय में अधिक लोगों का मन परिवर्तन होता है तो यह भी परमेश्वर द्वारा किया गया आश्चर्यकर्म माना जाता है। केवल अंतर उस ''प्रबलता और सीमा का'' होता है। जब हम आत्मिक जागरण के लिये प्रार्थना करते हैं तो इसका अर्थ है कि हम बहुतों के मन में पवित्र आत्मा का प्रवाह भेजने के लिये प्रार्थना कर रहे हैं।

मन परिवर्तन कैसे होता है? पहले, ''वह आकर संसार को पाप और धामिर्कता और न्याय के विषय में (निरूत्तर) ......करेगा'' (लूका १६:८)। पाल कुक ने कहा था, ''कि लोग अपने पाप के प्रति स्वयं से अपराध बोध से नहीं भरते हैं। स्वभाव से लोग स्वयं को हमेशा सही ठहराते हैं। ऐसे में पवित्र आत्मा द्वारा कोई विशेष कार्य का होना आवश्यक है। जब पवित्र आत्मा का कार्य प्रारंभ होता है तो यह हमारे पापों को हमारे समक्ष वीभत्स (घृणास्पद, डरावने) बना कर प्रस्तुत करता है, ताकि हम उससे घृणा करें और त्याग देवें।'' जैसे एक लड़की ने कहा था, ''मुझे अपने आप से घृणा आती है।'' पाप के प्रति बोध होने की इससे अच्छी परिभाषा मैने पहले कभी नहीं देखी। ''मुझे अपने आप से घृणा आती है।'' जब तक आप को अपने पाप के लिये इस तरह का बोध नहीं हो तब तक सच्चा मन परिवर्तन हो ही नहीं सकता। इसलिये हमें प्रार्थना रत रहना चाहिये कि पवित्र आत्मा उन लोगों को पाप का बोध देवें जिनका अभी तक उद्वार नही हुआ है।

दूसरा कार्य पवित्र आत्मा जो करता है कि उस व्यक्ति को मसीह से मिलवाता है जिनके भीतर पाप के प्रति बोध उत्पन्न हुआ है। यीशु ने कहा भी है, ''वह मेरी महिमा करेगा, क्योंकि वह मेरी बातों में से लेकर तुम्हें बताएगा।'' (यूहन्ना १६:१४) आधुनिक अनुवाद यह कहता है, ''वह......वह मेरी बातों में से लेकर तुम्हें बताएगा।'' पापों में भ्रष्ट इंसान स्वतः कभी यीशु को नहीं समझ सकता जब तक कि पवित्र आत्मा उसे न बताये। अगर आप को पापों का बोध नहीं हुआ है तो पवित्र आत्मा मसीह का परिचय आप से नहीं करवायेगा।

तो, जब हम पवित्र आत्मा के भेजे जाने के लिये प्रार्थना कर रहे हैं तो हम परमेश्वर से उनकी सामर्थ को भेजे जाने के लिये कह रहे हैं (१) ताकि पाप में भ्रष्ट इंसान को पाप का बोध करवा सके (२) हमें प्रार्थना करना चाहिये कि पवित्र आत्मा उसके बाद उस इंसान का परिचय मसीह से करवाये। तब वह मसीह के रक्त से अपने पापों की क्षमा का वास्तविक अनुभव कर सके। जैसा यूहन्ना के १६ अध्याय में लिखा है उसके अनुसार पापों का बोध करवाना और मसीह के रक्त से पापों को धो देना पवित्र आत्मा के ये दो मुख्य कार्य है। ब्रायन एच एडवर्ड कहते हैं, ''कि अनेक मसीहियों को जब कहा जाता है कि वे आत्मिक जागरण के लिये प्रार्थना करें तो वे नहीं जानते कि उन्हें क्या कहना चाहिये।'' (ब्रायन एच एडवर्ड, रिवाईवल, इवेंजलीकल प्रेस, २००४ संस्करण, पेज ८० )

मसीही लोग नहीं जानते कि क्या प्रार्थना करना चाहिये क्योंकि इस युग के पापभ्रष्ट लोगों को वे पाप के बोध तले आते नहीं देखते। जबकि प्राचीन समय में हमारे पूर्वज वास्तव में किसी ''संकट के समय'' अपने पापों से पश्चाताप कर लेते थे। किंतु मैं कहता हूं कि हमें अपने चर्च में भी जो पापभ्रष्ट लोग आते हैं उनके मध्य पवित्र आत्मा के भेजे जाने के लिये प्रार्थना करना चाहिये ताकि उन्हें पापों का बोध हो सके। अगर पापों से पश्चाताप नहीं है तो उनका उद्वार नहीं हो सकता।

हमारे आज के इवेंजलीकल्स भी नहीं जानते कि कैसे आत्मिक जागरण के लिये प्रार्थना करें क्योंकि वे हमारे पूर्वजों के द्वारा ''संकट'' के समय में मन परिवर्तन किये जाने पर विश्वास ही नहीं करते हैं। हमारे पूर्वज कहते थे कि पाप का बोध होने पर मनुष्य ''जाग्रत'' हो जाता था भले ही उस समय उसका उद्वार नहीं होता था। हमारे पूर्वजों का यह भी कहना था कि जाग्रत होने के बाद हमें पाप से मुंह मोड़ने पर होने वाली पीड़ा से गुजरना आवश्यक है जैसे एक महिला प्रसव पीड़ा से होकर गुजरती है। केवल तभी, जैसा कि पूर्वजों ने कहा, एक व्यक्ति को सच्चे परिवर्तन का अनुभव हो सकता है (पिलग्रिम्स प्रोग्रेस में ''मसीही जन'' का सच्चा परिवर्तन)।

जोन सेम्यूएल कैगन ने संकटावस्था में मन परिवर्तन का अनुभव किया था। उसका परिवर्तन आज कल के इवेंजलीकल्स के समान नहीं था, बल्कि जोन बुनयन के समान कहा जा सकता है।

      मेरे मन परिवर्तन...... से पहले मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं मरने वाला हूं मुझे किसी तरह की शांति नहीं थी...... पवित्र आत्मा निश्चित तौर पर मुझे पाप का बोध प्रदान कर रहा था किंतु मैं मन के भीतर से कठोर होकर परमेश्वर व इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर रहा था। मैं भीतर से प्रताड़ित हो रहा था किंतु मैं इन विचारों को धकेल भी रहा था। २१ जून २००९ रविवार की सुबह तक मैं पूर्ण रूप से अपने प्रयासों से धक चुका था। मैं पूरी रीति से थक चुका था। इतना अधिक थक गया था कि मैं अपने पापों से घृणा करने लगा था।
      जब डा हिमर्स प्रचार कर रहे थे मैं भीतर से मन को कड़ा करके उनकी बातों को नकार रहा था। शाब्दिक तौर पर तो मैं अपने पापों का बोझ अपनी आत्मा पर महसूस कर रहा था। पर मैं इंतजार कर रहा था कि संदेश जल्दी समाप्त हो। किंतु पास्टर का प्रचार करना थम ही नहीं रहा था और मेरे पापों का बोझ सहना मेरे लिये अत्यंत बोझिल होता जा रहा था। मैं और अधिक कांटो के विरूद्व संघर्ष नहीं कर सका अब वह दिन आ गया था कि मेरा उद्वार होना तय था! जब निमंत्रण दिया गया तब भी मैं इसे नकार रहा था लेकिन मैं अब और नहीं सह सका। मैं जानता था कि मैं बहुत ही बुरा व्यक्ति था और परमेश्वर द्वारा मुझे नर्क में भेजना सही था। मैं अपने विरूद्व संघर्ष करते करते थक गया था। मैं सच में बहुत थक चुका था। पास्टर ने मुझे समझाया कि मसीह के पास आ जाओ। मैं उनकी अवज्ञा करता रहा। मेरे पाप मेरी आंखों के सामने थे तौभी मेरे पास यीशु नहीं थे। ये क्षण मेरी जिंदगी के सबसे भारी क्षण थे और मुझे लग रहा था कि मुझे उद्वार नहीं मिल सकेगा और मेरा नर्क जाना निश्चित है। मैं स्वयं बचने का प्रयास कर रहा था। मैं यीशु पर विश्वास रखने का प्रयास कर रहा था लेकिन यह सब करने मे मैं असफल रहा और मैं और अधिक हताश होता चला गया। मैं जान रहा था कि मेरे पाप मुझे नर्क की तरफ धक्का दे रहे थे और मेरे भीतर का हठी मन मेरे आंसुओं को दूर धकेल रहा था। मैं इस संघर्ष में फंस कर रह गया।
      अचानक मुझे बरसों पुराना एक प्रचार याद आया जिसके शब्द थे: ''मसीह के आगे समर्पण करो! मसीह के आगे समर्पण करो! अचानक यीशु को जीवन समर्पण के विचार ने मुझे हताशा से भर दिया और मुझे लगा कि मैं उन्हें जीवन नहीं दे पाउंगा।'' यीशु ने तो मेरे लिये अपने प्राण दिये। सच्चे यीशु मेरे लिये क्रूस पर चढ़ गये और मैं उनका ही शत्रु बना जा रहा था उनके आगे समर्पित होने से बच रहा था। इस विचार ने मुझे तोड़ कर रख दिया और मैंने अपने भीतर से सब बह जाने दिया। अब मैं अपने आप पर काबू नहीं रख पाया और मुझे यीशु की तीव्र आवश्यकता मेरे जीवन में महसूस होने लगी! उसी क्षण मैं विश्वास के साथ यीशु के आगे समर्पित हो गया और मुझे लगा कि मैं अगर समर्पण नहीं करता हूं तो शायद मर ही जाउंगा और यीशु ने मुझे नया जीवन दिया! न मैंने अपने किसी प्रयास से न इच्छा के बल पर बल्कि अपने मन से यीशु को अपना मान लिया और यीशु ने मुझे नया जीवन दिया! उन्होंने अपने रक्त से मेरे पापों को धो दिया। उस एक क्षण में मैंने यीशु का विरोध करना बिल्कुल बंद कर दिया। अब मेरे सामने यह बिल्कुल स्पष्ट था कि मुझे सिर्फ यीशु पर विश्वास करना था। मैं उस एक क्षण को भी पहचान रहा था जब मैं मैं नहीं रहा और मेरे भीतर का स्व यीशु के आगे समर्पित था। मुझे समर्पित होना ही था! न मेरे भीतर कोई ऐसी भावना पैदा हुई और न कोई प्रकाश मेरे सामने कौंधा मुझे किसी भावना की जरूरत नहीं थी मुझे केवल यीशु चाहिये थे! यीशु की ओर मुड़ा तो मुझे मेरे उपर से पापों का बोझ उठता हुआ प्रतीत हुआ। मैंने पापों की ओर से मुंह मोड़ कर केवल यीशु की ओर ताका! यीशु ने मुझे बचा लिया
      यीशु ने मुझसे कितना प्रेम किया होगा जब मैं इस योग्य भी नहीं था कि इतने अच्छे चर्च में पला होने के बाद भी यीशु को अपने जीवन में नकार रहा था! शब्द भी मेरे पास कम पड़ेगें कि मैं अपने मन परिवर्तन का अनुभव बयान करूं और मसीह के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करूं। मसीह ने अपने जीवन को मेरे लिये दिया और इसके लिये मैं अपना संपूर्ण जीवन उन्हें देता हूं। यीशु ने अपने सिंहासन को छोड़ दिया कि क्रूस पर चढ़ जावें और मैं उनके ही चर्च को नकारता रहा और पापों से मिलने वाली मुक्ति का उपहास उड़ाता रहा; तो मैं किस तरह उनके प्रेम और करूणा पाने के योग्य हूं? उन्होंने मुझे एक नयी शुरूआत ही नहीं दी − बल्कि एक नया जीवन भी दिया।

मैं डा ल्योड जोंस से बिल्कुल सहमत हूं कि पौलुस ने रोमियों ७ के अंतिम दो पदों में सच्चे मन परिवर्तन के बारे में बताया। डा ल्योड जोंस के अनुसार ये पद पौलुस के सच्चे परिवर्तन का बखान करते हैं। मैं सहमत हूं। पौलुस ने लिखा था,

''मैं कैसा अभागा मनुष्य हूं! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?'' (रोमियों ७:२४)

यह पापों का बोध कहलाता है! − जब पापी अपने प्रयास करना छोड़ देता है अपने पापों के बोझ का दास हो जाता है और अपने आप से ही उसे घृणा होने लगती है। पर तब पौलुस ने यह भी लिखा है,

''मैं अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर का धन्यवाद करता हूं'' (रोमियों ७:२५)

इसे सच्चा मन परिवर्तन कहेंगे − जब अंर्तमन में अत्यंत विकल होकर पापी जन प्रभु यीशु मसीह द्वारा छुड़ा लिया जाता है! जब पापी को ऐसा लगता है कि वह पाप का गुलाम है और अपने आप को पाप से मुक्ति दिलाने के उसके सारे प्रयास निरर्थक है अंतत वह यीशु की ओर मुक्ति पाने के लिये मुड़ता है और उनके लहू से अपने पापों को शुद्व करता है। हमारे समय का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि प्रचारक लोगों को इस बात को कभी समझाते ही नहीं कि उन्हें मन परिवर्तन के लिये इन दो अनुभवों से होकर गुजरना है। के लोगों के विवेक में जरा सी चुभन हुई कि प्रचारक उनसे रटी रटायी प्रार्थना दोहराने को कहते हैं और भुलावे में रखते हैं कि उन्होंने उद्वार प्राप्त कर लिया है। यही तो एक सबसे बड़ा कारण है कि हमारे देश में आज तक १८५९ के बाद आत्मिक जागरण नहीं आया।

इसलिये, हमारे चर्च में लोगों का मन परिवर्तन हों, लोगों के विवेक छिद जायें ऐसी प्रार्थना करना चाहिये। पहले स्थान पर, आप को प्रार्थना करना चाहिये कि पाप से ग्रस्त लोगों को पवित्र आत्मा उनके पापी होने का तीव्र बोध करवायें। फिर, पवित्र आत्मा उनके सामने यीशु को प्रगट करे और उन्हें यीशु के पास लेकर आये ताकि यीशु के क्रूस पर बहाये गये लहू से उनके पाप शुद्व हो जायें, उन्हें सदा के लिये पापों से मुक्ति मिलें उन्हें अब कोई भी प्रयास करने की कभी आवश्यकता नहीं है!

पास्टर ब्रायन एच एडवर्डस ने कहा था कि ''आत्मिक जागरण की प्रार्थनायें परिवर्तन के लिये तैयार हो रहे लोग (जाग्रत) और सुप्त दोनों प्रकार के लोगों पर केंद्रित होती है'' (रिवाईवल, इवेंजलीकल प्रेस, संस्करण २००४, पेज १२७)। क्यों आत्मिक जागरण की प्रार्थनायें ''परिवर्तन'' के लिये तैयार हो रहे लोग ''जाग्रत'' और ''सुप्त'' दोनों प्रकार के लोगों पर केंद्रित होती है? क्योंकि जो परिवर्तित हो रहे हैं वे फुसलायें भी जा सकते हैं। पहले जब फस्र्ट बैपटिस्ट चायनीज चर्च में परिवर्तित हो रहे लोगों के मध्य आत्मिक जाग्रति आना प्रारंभ हुई वे अपने पापों को स्वीकार करने लगे। वे एक दूसरे के सामने आंसू बहाने लगे उनके मन खुल गये थे। उनके मन में चर्च के अन्य लोगों के प्रति जो कटुता थी वह पिघलने लगी। किसी के जीवनों में कुछ गुप्त पाप का प्रवेश था। लोगों ने एक दूसरे को क्षमा भी किया और अपने मनों को साफ किया। जब पवित्र आत्मा उतरा तो इन लोगों के मन टूट गये। उन्होंने यह जान लिया कि इतने दिनों तक उनकी प्रार्थनायें ठंडी और निरर्थक थी। उन्होंने यह मान लिया कि उनके मनों में किसी न किसी के प्रति द्वेष या कड़वाहट थी। लेकिन फिर भी कुछ लोग होते हैं जो आत्मा में नम्र नहीं बनाना चाहते हैं और मन परिवर्तन की आवश्यकता नहीं समझते हैं।

हमारे यहां कोई ऐसा हो सकता है जो किसी विषय पर परमेश्वर की आज्ञा मानने से बचना चाहता हो। यह आत्मिक जाग्रति आने में बाधक होता है! जब केंटुकी के विल्मोर में आसबरी कालेज में १९७० में आत्मिक जाग्रति फैली तो सच्चे परिवर्तित विधार्थियों ने यह माना कि उन्हें एक दूसरे के सामने पाप स्वीकार करना......आवश्यक है। वे घंटों कतार में खड़े रहते और अपनी बारी का इंतजार करते कि उन्हें चैपल में बोलने के लिये माइक्रोफोन मिले...... वे अपनी (अनाज्ञाकारिता) को स्वीकार कर सकें और प्रार्थना करने के लिये कह सकें।

आसबरी कालेज में जो सभा का संचालन कर रहा था उसने प्रचार नहीं किया बल्कि उसने अपने जीवन की गवाही दी और विधार्थियों को आमंत्रण दिया कि वे अपने मसीही होने के अनुभव को बांटे। इसमें ऐसी कोई खास बात भी नहीं थी। एक विधार्थी ने उनके आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। फिर दूसरे ने किया। फिर दूसरे ने किया। ''फिर वे वेदी पर आकर अपने मन को उड़ेलने लगे,'' उसने बताया। ''फिर तो सिलसिला चल पड़ा।'' धीरे धीरे बिना किसी कठिनाई के विधार्थी और अध्यापक प्रार्थना करते जा रहे थे, उनके आंसू बहते जा रहे थे, और वे गा रहे थे। उन्होंने जिनके प्रति गलत किया था उनसे क्षमा मांगी। चैपल में यह आराधना आठ दिन (२४ घंटे) चली।

बिल्कुल ऐसा ही फस्र्ट बैपटिस्ट चायनीज चर्च में भी हुआ, जब आसबरी कालेज में भी आत्मिक जाग्रति के क्षण बीत रहे थे। घंटों तक यह क्रम चलता रहा जब जवान चायनीज बच्चे अपने गलत कामों को स्वीकारते रहे और प्रार्थना करते रहे। खुले रूप में स्वीकारोक्ति करना कोरिया में १९१० में होने वाली आत्मिक जाग्रति में आम बात थी। आज चीन में ऐसे आत्मिक जाग्रति के क्षणों में खुले में आंसू बहाते हुए अपने पापों को मान लेना आम बात है। इवान राबर्ट यह कहते हुए रो पड़े थे, ''हे परमेश्वर मेरे मन को झुका'' तब उन्होंने परमेश्वर के सामने समर्पण किया था और वेल्श में १९१० में हुई आत्मिक जागरण की सभा का नेतृत्व किया। आज आप की क्या दशा है क्या आप परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे कि आपके मन को झुका देवें। ''हे ईश्वर, मुझे जांच'' यह गीत गावें।

''हे ईश्वर, मुझे जांच कर जान ले!
मुझे परख कर मेरी चिन्ताओं को जान ले!
और देख कि मुझ में कोई बुरी चाल है कि नहीं,
और अनन्त के मार्ग में मेरी अगुवाई कर''
   (भजन १३९:२३, २४)

पवित्र आत्मा नीचे उतर आइये, विनती है हमारी
पवित्र आत्मा नीचे उतर आइये, विनती है हमारी
मुझे पिघलाइये, तोड़िये, नम्र कीजिये, झुकाइये
पवित्र आत्मा नीचे उतर आइये, विनती है हमारी

अगर परमेश्वर पवित्र आत्मा हमारे चर्च में भेजते हैं तो यह हमारे यहां भी हो सकता है। ''हे ईश्वर मुझे जांच'' यह गीत धीमे धीमे गावें।

''हे ईश्वर, मुझे जांच कर जान ले!
मुझे परख कर मेरी चिन्ताओं को जान ले!
और देख कि मुझ में कोई बुरी चाल है कि नहीं,
और अनन्त के मार्ग में मेरी अगुवाई कर''
   (भजन १३९:२३, २४)

आमीन।


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(संदेश का अंत)
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